रोज़ तारों की नुमाइश में खलल पड़ता है
चाँद पागल है ..अँधेरे में निकल पड़ता है
एक दीवाना मुसाफिर है मेरी आँखों में
वक़्त बे -वक़्त ठहर जाता है चल पड़ता है
अपनी ताबीर के चक्कर में मेरा जगता ख्वाब
रोज़ सूरज की तरह घर से निकल पड़ता है
रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं
रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है
उसकी याद आई है ....साँसों ! ज़रा आहिस्ता चलो
धडकनों से भी ....इबादत में ..खलल पड़ता है
'राहत इन्दोरी '
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