Wednesday, January 20, 2016

अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये





अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये

घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये 


जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं

उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाये 


बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं

किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाये 


ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में

और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाये 


घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें

किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये

निदा फ़ाज़ली 

रोज़ तारों की नुमाइश में खलल पड़ता है





रोज़ तारों की नुमाइश में खलल पड़ता है
चाँद पागल है ..अँधेरे में निकल पड़ता है


एक दीवाना मुसाफिर है मेरी आँखों में 

वक़्त बे -वक़्त ठहर जाता  है चल पड़ता है 


अपनी ताबीर के चक्कर में मेरा जगता ख्वाब 

रोज़ सूरज की तरह घर से निकल पड़ता है


रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं 

रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है 


उसकी याद आई है ....साँसों ! ज़रा आहिस्ता चलो 

धडकनों से भी ....इबादत में ..खलल पड़ता है

'राहत  इन्दोरी '