Sunday, January 17, 2016

सामने गुलशन नज़र आया




सामने गुलशन नज़र आया

गीत भँवरे ने मधुर गाया ।


फूल के संग मिले काँटे भी

ज़िन्दगी का यही सरमाया ।


उन की महफ़िल में क़दम मेरा

मैं बडी गुस्ताखी कर आया ।


आँख में भर कर उसे देखा

फिर रहा हूँ तब से भरमाया ।


चोट ऐसी वक्त ने मारी

गीत होंठों ने मधुर गाया ।


धुंध ऐसी सुबह को छाई

शाम का मन्जर नज़र आया ।


आँख टेढ़ी जब हुई उन की

ज़िन्दगी ने बस क़हर ढाया ।


डॉ सुधेश

चाहा तुम्हें यह अब कहूँ




मैंने लिखा कुछ भी नहीं

तुम ने पढ़ा कुछ भी नहीं 



जो भी लिखा दिल से लिखा

इस के सिवा कुछ भी नहीं ।



मुझ से ज़माना है ख़फ़ा

मेरी ख़ता कुछ भी नहीं 



तुम तो खुदा के बन्दे हो

मेरा खुदा कुछ भी नहीं ।



मैं ने उस पर जान दी

उस को वफ़ा कुछ भी नहीं 



चाहा तुम्हें यह अब कहूँ

लेकिन कहा कुछ भी नहीं ।



यह तो नज़र की बात है

अच्छा बुरा कुछ भी नहीं ।

- रचनाकार: डॉ सुधेश

मिट्टी में मिला दे की जुदा हो नहीं सकता






मिट्टी में मिला दे की जुदा हो नहीं सकता

अब इससे जयादा मैं तेरा हो नहीं सकता



दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें

रौशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता


बस तू मेरी आवाज़ में आवाज़ मिला दे

फिर देख की इस शहर में क्या हो नहीं सकता


ऎ मौत मुझे तूने मुसीबत से निकाला

सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता


इस ख़ाकबदन को कभी पहुँचा दे वहाँ भी

क्या इतना करम बादे-सबा* हो नहीं सकता


पेशानी* को सजदे भी अता कर मेरे मौला

आँखों से तो यह क़र्ज़ अदा हो नहीं सकता


*बादे-सबा – बहती हवा

*पेशानी -माथे


"मुनव्वर राना"


ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं




अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी- चादर उठाते हैं


तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते

हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं


इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे

ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं


समन्दर के सफ़र से वापसी का क्या भरोसा है

तो ऐ साहिल, ख़ुदा हाफ़िज़ कि हम लंगर उठाते हैं


ग़ज़ल हम तेरे आशिक़ हैं मगर इस पेट की ख़ातिर

क़लम किस पर उठाना था क़लम किसपर उठाते हैं


बुरे चेहरों की जानिब देखने की हद भी होती है

सँभलना आईनाख़ानो, कि हम पत्थर उठाते हैं


"मुनव्वर राना"


तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू गुलों से आती है





तुम्हारे जिस्म की खुशबू गुलों से आती है

ख़बर तुम्हारी भी अब दूसरों से आती है


हमीं अकेले नहीं जागते हैं रातों में

उसे भी नींद बड़ी मुश्किलों से आती है


हमारी आँखों को मैला तो कर दिया है मगर

मोहब्बतों में चमक आँसुओं से आती है


इसी लिए तो अँधेरे हसीन लगते हैं

कि रात मिल के तेरे गेसुओं से आती है


ये किस मक़ाम पे पहुँचा दिया मोहब्बत ने

कि तेरी याद भी अब कोशिशों से आती है



       "मुनव्वर राना " 


लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है




लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है

उछलते खेलते बचपन में बेटा ढूँढती होगी
तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है

तभी जा कर कहीं माँ-बाप को कुछ चैन पड़ता है
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है

चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है
कली जब सो के उठती है तो तितली मुस्कुराती है

हमें ऐ ज़िन्दगी तुझ पर हमेशा रश्क आता है
मसायल से घिरी रहती है फिर भी मुस्कुराती है

बड़ा गहरा तअल्लुक़ है सियासत से तबाही का
कोई भी शहर जलता है तो दिल्ली मुस्कुराती है

"मुनव्वर राना"


हम दोनों में आँखें कोई गीली नहीं करता





 हम दोनों में आँखें कोई गीली नहीं करता

ग़म वो नहीं करता है तो मैं भी नहीं करता


मौक़ा तो कई बार मिला है मुझे लेकिन

मैं उससे मुलाक़ात में जल्दी नहीं करता


वो मुझसे बिछड़ते हुए रोया नहीं वरना

दो चार बरस और मैं शादी नहीं करता


वो मुझसे बिछड़ने को भी तैयार नहीं है

लेकिन वो बुज़ुर्गों को ख़फ़ा भी नहीं करता


ख़ुश रहता है वो अपनी ग़रीबी में हमेशा

‘राना’ कभी शाहों की ग़ुलामी नहीं करता


"मुनव्वर राना"


ये देख कर पतंगे भी हैरान हो गयी





ये देख कर पतंगे भी हैरान हो गयी

अब तो छते भी हिन्दू -मुसलमान हो गयी



क्या शहर -ए-दिल में जश्न -सा रहता था रात -दिन

क्या बस्तियां थी ,कैसी बियाबान हो गयी



आ जा कि चंद साँसे बची है हिसाब से

आँखे तो इन्तजार में लोबान हो गयी



उसने बिछड़ते वक़्त कहा था कि हँस के देख

आँखे तमाम उम्र को वीरान हो गयी


- मुनव्वर राना 

मैं लोगों से मुलाकातों के लम्हे याद रखता हूँ




 मैं लोगों से मुलाकातों के लम्हे याद रखता हूँ

मैं बातें भूल भी जाऊं तो लहजे याद रखता हूँ ,


सर-ए-महफ़िल निगाहें मुझ पे जिन लोगों की पड़ती हैं

निगाहों के हवाले से वो चेहरे याद रखता हूँ ,


ज़रा सा हट के चलता हूँ ज़माने की रवायत से

कि जिन पे बोझ मैं डालू वो कंधे याद रखता हूँ ,


दोस्ती जिससे कि उसे निभाऊंगा जी जान से

मैं दोस्ती के हवाले से रिश्ते याद रखता हूँ ..


"मुनव्वर राना "


मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती




मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती


मैं इक दिन बेख़याली में कहीं सच बोल बैठा था

मैं कोशिश कर चुका हूँ मुँह की कड़ुवाहट नहीं जाती


जहाँ मैं हूँ वहीं आवाज़ देना जुर्म ठहरा है

जहाँ वो है वहाँ तक पाँव की आहट नहीं जाती


मोहब्बत का ये जज्बा  जब ख़ुदा कि देन है भाई

तो मेरे रास्ते से क्यों ये दुनिया हट नहीं जाती


वो मुझसे बेतकल्लुफ़ हो के मिलता है मगर ‘राना’

न जाने क्यों मेरे चेहरे से घबराहट नहीं जाती.


"मुनव्वर राना "


ये तेरा घर ये मेरा घर






ये तेरा घर ये मेरा घर किसी को देखना हो अगर 

तो पहले आके माँग ले मेरी नज़र तेरी नज़र 


ये घर बहुत हसीन है ये घर बहुत हसीन है 

न बादलों की छाँव में न चाँदनी के गाँव में 


न फूल जैसे रास्ते बने हैं इसके वास्ते 

मगर ये घर अजीब है ज़मीन के क़रीब है 


ये ईँट पत्थरों का घर हमारी हसरतों का घर 

जो चाँदनी नहीं तो क्या ये रोशनी है प्यार की 


दिलों के फूल खिल गये तो फ़िक्र क्या बहार की 

हमारे घर ना आयेगी कभी ख़ुशी उधार की 


हमारी राहतों का घर हमारी चाहतों का घर 

यहाँ महक वफ़ाओं की है क़हक़हों के रंग है 


ये घर तुम्हारा ख़्वाब है ये घर मेरी उमंग है 

न आरज़ू पे क़ैद है न हौसले पर जंग है 


हमारे हौसले का घर हमारी हिम्मतों का घर





-जावेद अख्तर 


आप भी आइए, हम को भी बुलाते रहिए






आप भी आइए, हम को भी बुलाते रहिए

दोस्ती ज़ुर्म नहीं, दोस्त बनाते रहिए


ज़हर पी जाइए और बाँटिए अमृत सबको

ज़ख्म भी खाइए और गीत भी गाते रहिए


वक्त ने लूट लीं लोगों की तमन्नाएँ भी

ख्वाब जो देखिए औरों को दिखाते रहिए


शक्ल तो आपके भी ज़हन में होगी कोई

कभी बन जाएगी तस्वीर , बनाते रहिए



"जावेद अख्तर"


तुमको देखा तो ये ख़याल आया




तुमको देखा तो ये ख़याल आया

ज़िन्दगी धूप तुम घना साया


आज फिर दिल ने एक तमन्ना की

आज फिर दिल को हमने समझाया


तुम चले जाओगे तो सोचेंगे

हमने क्या खोया, हमने क्या पाया


हम जिसे गुनगुना नहीं सकते

वक़्त ने ऐसा गीत क्यूँ गाया



-जावेद अख्तर


जाते जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया





जाते जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया
उम्र भर दोहराऊँगा ऐसी कहानी दे गया


उस से मैं कुछ पा सकूँ ऐसी कहाँ उम्मीद थी

ग़म भी वो शायद बरा-ए-मेहरबानी* दे गया


सब हवायें ले गया मेरे समंदर की कोई

और मुझ को एक कश्ती बादबानी* दे गया


ख़ैर मैं प्यासा रहा पर उस ने इतना तो किया

मेरी पलकों की कतारों को वो पानी दे गया


* बरा-ए-मेहरबानी = दयापूर्वक

* कश्ती बादबानी = पाल वाली नौका

जावेद अख्तर

मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं




मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं

इक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे रिश्ता तोड़ लिया
इक वो दिन जब पेड़ की शाख़े बोझ हमारा सहती थीं

इक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का
इक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं

इक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी रूठी लगती हैं
इक वो दिन जब ‘आओ खेलें’ सारी गलियाँ कहती थीं

इक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं
इक वो दिन जब शाख़ों की भी पलकें बोझल रहती थीं

इक ये दिन जब ज़हन में सारी अय्यारी की बातें हैं
इक वो दिन जब दिल में सारी भोली बातें रहती थीं

इक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामाँ रहता है
इक वो घर जिसमें मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं

जावेद अख्तर

अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना





अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना 

सिर्फ अहसान जताने के लिए मत आना 


मैंने पलकों पे तमन्नाएँ सजा रखी हैं 

दिल में उम्‍मीद की सौ शम्‍मे जला रखी हैं 
ये हँसीं शम्‍मे बुझाने के लिए मत आना

प्यार की आग में जंजीरें पिघल सकती हैं 
चाहने वालों की तक़बीरें बदल सकती हैं 
तुम हो बेबस ये बताने के लिए मत आना 


अब तुम आना जो तुम्‍हें मुझसे मुहब्बत है कोई 

मुझसे मिलने की अगर तुमको भी चाहत है कोई 
तुम कोई रस्‍म निभानें  के लिए मत आना



जावेद अख्तर 


जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये





जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये


जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़

उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये


जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को

किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये


मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार

दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये


"अदम गोंडवी"


फिर आज मुझे तुम को बस इतना बताना है






फिर आज मुझे तुम को बस इतना बताना है

हँसना ही जीवन है हँसते ही जाना है


मधुबन हो या गुलशन हो पतझड़ हो या सावन हो

हर हाल में इंसाँ का इक फूल सा जीवन हो


काँटों में उलझ के भी ख़ुशबू ही लुटाना है

हँसना ही जीवन है हँसते ही जाना है


हर पल जो गुज़र जाये दामन को तो भर जाये

ये सोच के जी लें तो तक़दीर सँवर जाये


इस उम्र की राहों से ख़ुशियों को चुराना है

हँसना ही जीवन है हँसते ही जाना है


सब दर्द मिटा दें हम, हर ग़म को सज़ा दें हम

कहते हैं जिसे जीना दुनिया को सिखा दें हम


ये आज तो अपना है कल भी अपनाना है

हँसना ही जीवन है हँसते ही जाना है

-सुदर्शन फ़ाकिर

कुछ तो दुनिया की इनाया़त ने दिल तोड़ दिया






कुछ तो दुनिया की इनाया़त* ने दिल तोड़ दिया

और कुछ तल्ख़ी-ए हालात* ने दिल तोड़ दिया


हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब

आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया


दिल तो रोता रहे और ऑखसे ऑसू न बहे

इश्क़ की ऐसी रवायात ने दिल तोड़ दिया


वो मेरे है मुझे मिल जाऎगे आ जाऎगे

ऐसे बेकार खय़ालात ने दिल तोड़ दिया


आपको प्यार है मुझसे कि नही है मुझसे

जाने क्यो ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया


*इनायात  – मेहरबानी, कृपा 

*तल्ख़ी-ए हालात  –  हालात की कड़वाहट  
-सुदर्शन फ़ाकिर 

अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें



अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें

हम उनके लिए ज़िंदगानी लुटा दें


हर एक मोड़ पर हम ग़मों को सज़ा दें

चलो ज़िन्दगी को मोहब्बत बना दें


अगर ख़ुद को भूले तो, कुछ भी न भूले

कि चाहत में उनकी, ख़ुदा को भुला दें


कभी ग़म की आँधी, जिन्हें छू न पाये

वफ़ाओं के हम, वो नशेमन बना दें


क़यामत के दीवाने कहते हैं हमसे

चलो उनके चहरे से पर्दा हटा दें


सज़ा दें, सिला दें, बना दें, मिटा दें

मगर वो कोई फ़ैसला तो सुना दें



सुदर्शन फ़ाकिर


सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं




सामने है जो, उसे लोग बुरा कहते हैं 

जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं 


ज़िन्दगी को भी सिला कहते हैं कहनेवाले 

जीनेवाले तो गुनाहों की सज़ा कहते हैं

फ़ासले उम्र के कुछ और बढा़ देती है 
जाने क्यूँ लोग उसे फिर भी दवा कहते हैं 


चंद मासूम से पत्तों का लहू है “फ़ाकिर” 

जिसको महबूब के हाथों की हिना  कहते हैं !


    सुदर्शन फ़ाकिर 


ढल गया आफ़ताब ऐ साक़ी




ढल गया आफ़ताब ऐ साक़ी
ला पिला दे शराब ऐ साक़ी


या सुराही लगा मेरे मुँह से

या उलट दे नक़ाब ऐ साक़ी


मैकदा छोड़ कर कहाँ जाऊँ

है ज़माना ख़राब ऐ साक़ी


जाम भर दे गुनाहगारों के

ये भी है इक सवाब ऐ साक़ी


आज पीने दे और पीने दे

कल करेंगे हिसाब ऐ साक़ी


-सुदर्शन फ़ाकिर 


आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है





आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है 

ज़ख़्म हर सर पे हर इक हाथ में पत्थर क्यूँ है 


जब हक़ीक़त है के हर ज़र्रे में तू रहता है 

फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यूँ है 


अपना अंजाम तो मालूम है सब को फिर भी 

अपनी नज़रों में हर इन्सान सिकंदर क्यूँ है


ज़िन्दगी जीने के क़ाबिल ही नहीं अब “फ़ाकिर” 

वर्ना हर आँख में अश्कों का समंदर क्यूँ है



-सुदर्शन फ़ाक़िर 

जब भी तन्हाई से घबराके सिमट जाते हैं





जब भी तन्हाई से घबराके सिमट जाते हैं
हम तेरी याद के दामन से लिपट जाते हैं



उनपे तूफान को भी अफ़सोस हुआ करता है

वो सफीने* जो किनारों पे उलट जाते हैं



हम तो आए थे राहे साख में फूलों की तरह

तुम अगर हार समझते हो तो हट जाते हैं


* सफीने – नाव 

-सुदर्शन फ़ाकिर 

लोग हर मोड़ पर रुक – रुक के संभलते क्यों है



लोग हर मोड़ पर रुक – रुक के संभलते क्यों है
इतना डरते है तो फिर घर से निकलते क्यों है


मैं ना जुगनू हूँ दिया हूँ ना  कोई तारा हूँ

रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं


नींद से मेरा ताल्लुक ही नहीं बरसों से

ख्वाब आ – आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं


मोड़ तो होता हैं जवानी का संभलने के लिये

और सब लोग यही आकर फिसलते क्यों हैं



-राहत इन्दौरी 


वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी




ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो

भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी


मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन

वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी


मुहल्ले की सबसे निशानी पुरानी

वो बुढ़िया जिसे बच्चे कहते थे नानी


वो नानी की बातों में परियों का डेरा

वो चेहरे की झुरिर्यों में सदियों का फेरा


भुलाए नहीं भूल सकता है कोई

वो छोटी सी रातें वो लम्बी कहानी


कड़ी धूप में अपने घर से निकलना

वो चिड़िया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना


वो गुड़िया की शादी में लड़ना झगड़ना

वो झूलों से गिरना वो गिर के सम्भलना


वो पीतल के छल्लों के प्यारे से तोहफ़े

वो टूटी हुई चूड़ियों की निशानी


कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना

घरौंदे बनाना बनाके मिटाना


वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी

वो ख़्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी


न दुनिया का ग़म था न रिश्तों के बंधन

बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िंदगानी


-सुदर्शन फ़ाक़िर 


तलब की राह में पाने से पहले खोना पड़ता है

ब्लॉगर :महेश जाँगिड़ 




तलब की राह में पाने से पहले खोना पड़ता है

बड़े सौदे नज़र में हों तो छोटा होना पड़ता है


जुबां देता है जो ए दर्द तेरी बेज़ुबानी को

उसी आंसू को फिर आँखों से बाहर होना पड़ता है


मोहब्बत ज़िन्दगी के फैसलों से लड़ नहीं सकती

किसी को खोना पड़ता है किसी का होना पड़ता है

-  वसीम बरेलवी

ये एहतियाते मोहब्बत तो जी नहीं जाती


ब्लॉगर :महेश  जाँगिड़ 




ये एहतियाते मोहब्बत तो जी नहीं जाती

कि तेरी बात तुझसे कही नहीं जाती


तेरी निगाह भी कैसी अजब कहानी है

मेरे अलावा किसी से पढ़ी नहीं जाती


तुझे पता है सूरज तेरे इलाके में

कही कही तो कभी रोशनी नहीं जाती


अजब मिजाज है इन खानदानी लोगों का

तबाह हो के भी दरियादिली नहीं जाती

-वसीम बरेलवी

अपने साये को इतना समझा दे

ब्लॉगर:  महेश जाँगिड़ 




अपने साये को इतना समझा दे

मुझे मेरे हिस्से की धूप आने दे


एक् नज़र में कई ज़माने देखे तू

बूढ़ी आंखो की तस्वीर बनाने दे


बाबा दुनिया जीत के मैं दिखा दूँगा

अपनी नज़र से दूर तो मुझ को जाने दे


मैं भी तो इस बाग़ का एक् परिंदा हूं

मेरी ही आवाज़ मैं मुझ को गाने दे


फिर तो ये उँचा ही होता जायेगा

बचपन के हाथो में चाँद आ जाने दे

-वसीम बरेलवी

तुझको सोचा तो पता हो गया रुसवाई को

ब्लॉगर:महेश  जाँगिड़







तुझको सोचा तो पता हो गया रुसवाई को

मैंने महफूज़ समझ रखा था तन्हाई को


जिस्म की चाह लकीरों से अदा करता है

ख़ाक समझेगा मुसव्विर तेरी अँगडाई को


अपनी दरियाई पे इतरा न बहुत ऐ दरिया

एक कतरा ही बहुत है तेरी रुसवाई को


चाहे जितना भी बिगड़ जाए ज़माने का चलन

झूठ से हारते देखा नहीं सच्चाई को


साथ मौजों के सभी हो जहाँ बहने वाले

कौन समझेगा समन्दर तेरी गहराई को


-वसीम बरेलवी 

कुछ इस तरह वह मेरी जिंदगी में आया था

ब्लॉगर :महेश  जाँगिड़ 





कुछ इस तरह वह मेरी जिंदगी में आया था
कि मेरा होते हुए भी, बस एक साया था


हवा में उडने की धुन ने यह दिन दिखाया था

उडान मेरी थी, लेकिन सफर पराया था


यह कौन राह दिखाकर चला गया मुझको

मैं जिंदगी में भला किस के काम आया था


मैं अपने वायदे पे कायम न रह सका वरना

वह थोडी दूर ही जाकर तो लौट आया था


न अब वह घर है , न उस के लोग याद “वसीम”

न जाने उसने कहाँ से मुझे चुराया था

-वसीम बरेलवी 

सबने मिलाया हाथ यहाँ तीरगी के साथ

ब्लॉगर :महेश  जाँगिड़ 




सबने मिलाया हाथ यहाँ तीरगी* के साथ

कितना बड़ा मज़ाक हुआ रोशनी के साथ


शर्तें लगाईं जाती नहीं दोस्ती के साथ

कीजिये मुझे कुबूल मेरी हर कमी के साथ


तेरा ख़याल, तेरी तलब, तेरी आरज़ू

गुजरी है सारी उम्र किसी रोशनी के साथ


किस काम की रही ये दिखावे की ज़िन्दगी

वादे किए किसी से गुज़ारी किसी के साथ .


दुनीयाँ को बेवफाई का इलज़ाम कौन दे ?

अपनी ही निभ सकी न बहुत दिन किसी के साथ

*तीरगी = अँधेरा
-वसीम बरेलवी

मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो

ब्लॉगर :महेश जाँगिड़ 



मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो

के मैं ज़मीन के रिश्तों से कट गया यारो


वो बेख़याल मुसाफ़िर, मैं रास्ता यारो

कहाँ था बस में मेरे, उस को रोकना यारो


मेरे क़लम पे ज़माने की गर्द ऐसी थी

के अपने बारे में कुछ भी न लिख सका यारो


तमाम शहर ही जिस की तलाश में गुम था

मैं उस के घर का पता किस से पूछता यारो


-वसीम बरेलवी

इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा ?

ब्लॉगर : महेश जाँगिड़



इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा ?
अपने हर इक लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा

उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा
तुम गिराने में लगे थे, तुम ने सोचा भी नहीं

मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊँगा
मुझ को चलने दो, अकेला है अभी मेरा सफ़र

रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा
सारी दुनिया की नज़र में है, मेरी अह्द—ए—वफ़ा

इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा?

-वसीम बरेलवी 

कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे

ब्लॉगर :महेश जांगिड़


कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे
मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे

पुराने लोगों के दिल भी हैं ख़ुशबुओं की तरह
ज़रा किसी से मिले, एतबार करने लगे

नए ज़माने से आँखें नहीं मिला पाये
तो लोग गुज़रे ज़माने से प्यार करने लगे

कोई इशारा, दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तेरा इंतज़ार करने लगे

हमारी सादामिजाज़ी की दाद दे कि तुझे
बगैर परखे तेरा एतबार करने लगे

-वसीम बरेलवी 

परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है

ब्लॉगर :महेश जाँगिड़ 



परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है

उड़ान वालो उड़ानों पे वक़्त भारी है


मैं क़तरा हो के तूफानों से जंग लड़ता हूँ

मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है


कोई बताये ये उसके ग़ुरूर-ए-बेजा को

वो जंग हमने लड़ी ही नहीं जो हारी है


दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत

ये एक चराग़ कई आँधियों पे भारी है



-वसीम बरेलवी 

खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं

ब्लॉगर :महेश  जाँगिड़ 




खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं

और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं


वो समझता था, उसे पाकर ही मैं रह जाऊंगा

उसको मेरी प्यास की शिद्दत का अन्दाज़ा नहीं


जा, दिखा दुनिया को, मुझको क्या दिखाता है ग़रूर

तू समन्दर है, तो हो, मैं तो मगर प्यासा नहीं


कोई भी दस्तक करे, आहट हो या आवाज़ दे

मेरे हाथों में मेरा घर तो है, दरवाज़ा नहीं


अपनों को अपना कहा, चाहे किसी दर्जे के हों

और अब ऐसा किया मैंने, तो शरमाया नहीं


उसकी महफ़िल में उन्हीं की रौशनी, जिनके चराग़

मैं भी कुछ होता, तो मेरा भी दिया होता नहीं


तुझसे क्या बिछड़ा, मेरी सारी हक़ीक़त खुल गयी

अब कोई मौसम मिले, तो मुझसे शरमाता नहीं


-वसीम बरेलवी 

हुस्न बाज़ार हुआ क्या कि हुनर ख़त्म हुआ

ब्लॉगर : महेश जाँगिड़  


हुस्न बाज़ार हुआ क्या कि हुनर ख़त्म हुआ
आया पलको पे तो आँसू का सफ़र ख़त्म हुआ


उम्र भर तुझसे बिछड़ने की कसक ही न गयी

कौन कहता है की मुहब्बत का असर ख़त्म हुआ


नयी कालोनी में बच्चों की ज़िदे ले तो गईं

बाप दादा का बनाया हुआ घर ख़त्म हुआ


जा, हमेशा को मुझे छोड़ के जाने वाले

तुझ से हर लम्हा बिछड़ने का तो डर ख़त्म हुआ

-वसीम बरेलवी 

शमा से कहना के जलना छोड़ दे

ब्लॉगर :महेश  जाँगिड़ 

रात के टुकड़ों पे पलना छोड़ दे
शमा से कहना के जलना छोड़ दे

मुश्किलें तो हर सफ़र का हुस्न हैं
कैसे कोई राह चलना छोड़ दे

तुझसे उम्मीदे- वफ़ा बेकार है
कैसे इक मौसम बदलना छोड़ दे

मैं तो ये हिम्मत दिखा पाया नहीं
तू ही मेरे साथ चलना छोड़ दे

कुछ तो कर आदाबे-महफ़िल का लिहाज़
यार ! ये पहलू बदलना छोड़ दे

-वसीम बरेलवी 

मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो

ब्लॉगर :महेश  जाँगिड़ 


उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है

जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है


नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये

कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है


थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे

सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है


बहुत बेबाक आँखों में त’अल्लुक़ टिक नहीं पाता

मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है


सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का

जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है


मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो

कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है


-वसीम बरेलवी

कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है

ब्लॉगर :महेश  जाँगिड़ 


कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है
ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है

एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ बाप के होंठों से हंसी जाती है

कतरा अब एह्तिजाज़ करे भी तो क्या मिले
दरिया जो लग रहे थे समंदर से जा मिले

हर शख्स दौड़ता है यहाँ भीड़ की तरफ
फिर ये भी चाहता है उसे रास्ता मिले

इस दौर-ए-मुन्साफी में जरुरी नहीं वसीम
जिस शख्स की खता हो उसी को सजा मिले


-वसीम बरेलवी

कश्ती तेरा नसीब चमकदार कर दिया

ब्लॉगर :महेश  जाँगिड़ 



कश्ती तेरा नसीब चमकदार कर दिया

इस पार के थपेड़ों ने उस पार कर दिया


अफवाह थी की मेरी तबियत ख़राब हैं

लोगो ने पूछ पूछ के बीमार कर दिया


रातों को चांदनी के भरोसें ना छोड़ना

सूरज ने जुगनुओं को ख़बरदार कर दिया


रुक रुक के लोग देख रहे है मेरी तरफ

तुमने ज़रा सी बात को अखबार कर दिया


इस बार एक और भी दीवार गिर गयी

बारिश ने मेरे घर को हवादार कर दिया


बोल था सच तो ज़हर पिलाया गया मुझे

अच्छाइयों ने मुझे गुनहगार कर दिया


दो गज सही ये मेरी मिलकियत तो हैं

ऐ मौत तूने मुझे ज़मीदार कर दिया



-राहत इन्दौरी

रोज़ तारों को नुमाइश में खलल पड़ता हैं

ब्लॉगर :महेश  जाँगिड़

रोज़ तारों को नुमाइश में खलल पड़ता हैं

चाँद पागल हैं अंधेरे में निकल पड़ता हैं

मैं समंदर हूँ कुल्हाड़ी से नहीं कट सकता
कोई फव्वारा नही हूँ जो उबल पड़ता हैं

कल वहाँ चाँद उगा करते थे हर आहट पर
अपने रास्ते में जो वीरान महल पड़ता हैं

ना त-आरूफ़ ना त-अल्लुक हैं  मगर दिल अक्सर
नाम सुनता हैं  तुम्हारा तो उछल पड़ता हैं

उसकी याद आई हैं  साँसों ज़रा धीरे चलो
धड़कनो से भी इबादत में खलल पड़ता हैं


-राहत इन्दौरी