Sunday, January 17, 2016

ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं




अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी- चादर उठाते हैं


तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते

हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं


इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे

ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं


समन्दर के सफ़र से वापसी का क्या भरोसा है

तो ऐ साहिल, ख़ुदा हाफ़िज़ कि हम लंगर उठाते हैं


ग़ज़ल हम तेरे आशिक़ हैं मगर इस पेट की ख़ातिर

क़लम किस पर उठाना था क़लम किसपर उठाते हैं


बुरे चेहरों की जानिब देखने की हद भी होती है

सँभलना आईनाख़ानो, कि हम पत्थर उठाते हैं


"मुनव्वर राना"


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