Saturday, January 16, 2016

“माँ”

ब्लॉगर :महेश  जाँगिड़


लबों  पर उसके कभी बददुआ नहीं होती

बस एक माँ है जो कभी खफा नहीं होती


इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है

माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है


मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आंसू

मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना


अभी ज़िंदा है माँ मेरी मुझे कुछ हो  नहीं सकता

मैं जब घर से निकलता हूँ दुआयें साथ चलती है


जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है

माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है


ए अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया

माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया


मेरी ख्वाहिश  है की मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊँ

माँ से इस तरह लिपटूँ कि बच्चा हो जाऊँ


माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना

जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती


लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है

मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिंदी मुस्कराती है

- मुनव्वर राना

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